Wednesday, November 9, 2011

पतझड़


पेड़ों की शाखाए चुप हैं लुटा हुआ श्रृंगार लिए ,
पापी पछुवा के झोंको ने सारे वस्त्र उतार लिए

कब से रस्ता देख रहा है पतझड़ से सन्देश कहो ,
पीला पत्ता हरी मुलायम कोंपल का उपहार लिए


कितनी जल की धाराओं ने पाँव छुवा और लौट गयीं ,
मैं सागर तट पर बैठा हूँ तृष्णा का अंगार लिए


जल पथ पर तूफ़ान खड़े हैं पत्थर की दीवार बने ,
मांझी नौका मे बैठा है एक टूटी पतवार लिए


बाहर का है दृश्य कैसा नन्ही चिड़िया भय खाकर ,
छुपी घोंसले मे बैठी है छोटा सा परिवार लिए


नेत्रहीन निंद्रा है अपनी क्या देखू क्या ध्यान करूँ ,
घर से रैन चली जाती है सपनो का संसार लिए


हे दिनकर हे अम्बर पंथी उज्यारे के दूत ठहर ,
संध्या स्वागत को आयी है अन्धकार का हार लिए


कल जिनको घिर्णा थी तेरी रचनाओ से आज वही ,
काज़िम तुझको खोज रहे हैं हाथों मे अखबार लिए -- काज़िम जरवली

Monday, November 7, 2011

दोहे


ये तो वक़्त बताएगा किसका गहरा वार,
एक जानिब तलवार है एक जानिब किरदार ।।
                      ***

गर सर को मिल जाएगी तेरे दर की धूल,
अंगारे बन जायेंगे पाँव के नीचे फूल ।।
                     ***

एक यही बस आएगा रोज़े महशर काम,
पाया है जो पाँच से मुट्ठी भर इस्लाम ।।
                     ***

एक आंसू किरदार की मैली चादर धोये,
जिसको जन्नत चाहिए मजलिस मे वो रोये ।।
                    ***

ये हमको मालूम है ये हमको है याद,
जितना उसको रोयेंगे उतने होंगे शाद ।।
                    ***

लेता है अंगड़ाईयाँ जीने का एहसास,
हर मुश्किल का तोड़ है एक नाम-ऐ-अब्बास ।।
                    ***

बदला है आशूर को जीवन का हर रूप,
कडवी कडवी छाँव है मीठी मीठी धूप ।।
                   ***

मैंने तेरी राह में लीं यूँ आँखें मूँद ,
रौज़े की देहलीज़ पर जैसे मोम की बूँद ।।

ज़ुल्मते शब्

पता नहीं है उजालो को वुसअते शब् का,
तहे चिराग भी क़ब्ज़ा है ज़ुल्मते शब् का

गुलो मे सर को छुपाये सिसक रही है हवा,
सहर के हाथ मे दमन है रुखसते शब् का

ये कहकशां है ग़ुबारे सफ़र का आईना ,
ये चाँद नक्श-ऐ-कफे पा है हिजरते शब् का

बता रहें हैं किसी के खुले हुए घेंसू ,
हवा की ज़द पे खज़ाना है नकहते शब् का

ठहर के ओंस की बूंदे शजर के पत्तो पर ,
इलाज ढूँढ रही हैं हरारते शब् का

थका थका सा उजाला डरी डरी आँखें ,
बहुत अजीब है मंज़र तिलावते शब् का

वो एक अश्क जो काज़िम है ता सहर बाक़ी,
वही चराग़ मुजाविर है तुर्बते शब् का ।।


हंसती हुई कली


यां ज़िन्दगी के नक्श मिटाती है ज़िन्दगी,
यां अब चिराग पीता है खुद अपनी रौशनी

इन्सां का बोझ सीना-ऐ-गेती पे बार है,
हर वक़्त आदमी से लरज़ता है आदमी

रेत उड़ रही है सूखे समंदर की गोद मे,
इंसान खून पी के बुझाता है तशनगी

वो दौर आ गया है कि अफ़सोस अब यहाँ,
मफहूम इन्किसार का होता है बुज़दिली

पैदा हुए वो ज़र्फ़ के ख़ाली सुखन नवाज़,
इल्मो-ओ-अदब कि हो गयी दीवार खोखली

पिघला रही है बर्फ मुहब्बत का चार सु ,
नफरत कि आग जिस्मो के अन्दर छुपी हुई

रंगीनियाँ छुपी है दिले सन्ग सन्ग मे ,
होंटो पे फूल बन के टपकती है सादगी

ढा देगी बर्फ बनके हक़ीक़त कि एक बूँद,
कितने दिनों टिकेगी ईमारत फरेब की

शिकवे जहाँ के भूल गया ज़ेहन देखकर ,
काज़िम शजर की शाख पे हंसती हुई कली ।।

लफ्ज़े मोअत्बर

कोई भी लफ्ज़ मेरा जैसे मोअत्बर ही नही ,
मेरी सदा का किसी पर कोई असर ही नही

ये मंजिले भी उसी को सदाए देती हैं ,
वो शख्स जिसको कोई खुवाहिशे सफ़र ही नही

तेरे वुजूद से इनकार तेरे होते हुए ,
पता है सबका तुझे अपनी कुछ खबर ही नही

मेरे भी नक्श-ए-क़दम हैं ख़लाओं में तहरीर,
ये अर्श सिर्फ सितारों की रहगुज़र ही नही

ये संगो खिस्त हैं बे चश्म नाज़री मेरे,
मेरे गवाह फ़कत साहिबे नज़र ही नही

गुज़र रहाँ हूँ मे कितनी अजीब राहों से,
सिवाए मेरे मेरा कोई हमसफ़र ही नही

ठहर गयी मेरी आँखों मे आके ऐ काज़िम,
एक ऐसी रात के जिसकी कोई सहर ही नही ।।    


खुशबुए गुल


जब शाम हुई अपने दीये हमने जलाये ,
सूरज का उजाला कभी शब् तक नही पहुंचा


जिस फूल मे खुशबु थी उधर सर को झुकाया ,
हर फूल के मै नाम-ओ-नसब तक नही पहुंचा ।। 


मै जिंदा हूँ



हवा में ज़हर घुला है मगर मै जिंदा हूँ ,
हर एक सांस सज़ा है मगर मै जिंदा हूँ

किसी को ढूंडती रहती हैं पुतलियाँ मेरी,
बदन से रूह जुदा है मगर मै जिंदा हूँ

मेरे ही खून से रंगीं है दामने क़ातिल ,
मेरा ही क़त्ल हुआ है मगर मै जिंदा हूँ ।।



आँधियों का सफ़र


मै लाख सच था, मगर सच पा ध्यान देता कौन,
बिकी हुई थीं ज़बाने बयान देता कौन

जब आँधियों ने किया था हमारे घर का सफ़र,
सभी थे महवे तमाशा अज़ान देता कौन

न रंगता अपना ही चेहरा तो और क्या करता,
हमारे खून को "काज़िम" अमान देता कौन



Thursday, October 27, 2011

ऊरूज-ए-आदमियत

अगर मैं आसमानों की खबर रखता नहीं होता,
ग़ुबार-ए-पाए-गेति मेरा सरमाया नहीं होता

ऊरूज-ए-आदमियत है मिज़ाजे ख़ाकसारी मे,
कभी मिटटी का दामन धूल से मैला नहीं होता

अगर हम चुप रहे तो चीख्ने चीखने लगती है ख़ामोशी,
किसी सूरत हमारे घर मे सन्नाटा नहीं होता

मै एक भटका हुआ अदना मुसाफ़िर, और वो सूरज है,
मेरे साये से उसके क़द का अंदाज़ा नहीं होता

हयाते-नौ अता होगी, हमें बे सर तो होने दो,
बहार आने से पहले शाख पर पत्ता नहीं होता

हमारी तशनगी सहराओ तक महदूद रह जाती
हमारे पाँव के नीचे अगर दरया नहीं होता

सफ़र की सातएंइन आती तो हैं घर तक मगर काज़िम,
कभी हम खुद नहीं होते, कभी रास्ता नहीं होता ।।          --काज़िम जरवली


महुए

कभी हमने भी गेहूं की बाली मे महुए पिरोये थे !!!

मेरे गाँव की यादें नशीली !
जूही,
चमेली !

वो खट्टे, वो मीठे मेरे दिन,
वो अमिया, वो बेरी !

कभी गाँव के कोल्हु पर ताज़े गुड के लिये रोये थे !!
कभी हमने भी........................... महुए पिरोये थे !!!

कभी भैंस की पीठ पर,
दूर तालाब पर !

धान के हरे खेतो के बीच खोये थे !!
कभी हमने भी.............महुए पिरोये थे !!!

कच्ची दहरी के पीछे,
खाई के नीचे !

ठंडी रातो मे हम भी पयाल पर सोये थे !!
कभी हमने भी............... महुए पिरोये थे !!!

एक दिन हम जो जागे,
गाँव से अपने भागे !

सारे सपने ना जाने हमने कहाँ डुबोये थे !!
कभी हमने भी गेहूं की बाली मे महुए पिरोये थे !!!   --काज़िम जरवली


ग़ुबार-ऐ-आइना

फ़ज़ाए शहर की नब्ज़े खिराम बैठ गयी,
फ़सीले शब पे दीये ले के शाम बैठ गयी

वो धूल जिस को हटाया था अपने चेहरे से,
वो आइनों पा पये इन्तेक़ाम बैठ गयी

गुज़रने वाला है किया रौशनी का शहजादा,
जो बाल खोल के रस्ते मे शाम बैठ गयी

मै किस नशेब मे तेरा लहू तलाश करु,
तमाम दश्त पा ख़ाके खयाम बैठ गयी

बहुत तवील सफ़र का था अज़्म ऐ काज़िम,
हयात चल के मगर चन्द गाम बैठ गयी ।।     --काज़िम जरवली


लिबास-ऐ-शजर

लहु मे गर्क़ अधूरी कहानिया निकली,
दहन से टूटी हुई सुर्ख चूड़िया निकली

मै जिस ज़मीन पा सदियो फिरा किया तनहा,
उसी ज़मीन से कितनी ही बस्तिया निकली

जहा मुहाल था पानी का एक क़तरा भी,
वहा से टूटी हुयी चन्द कश्तिया निकली

मसल दिया था सरे शाम एक जुग्नु को,
तमाम रात ख़यालों से बिजलिया निकली

चुरा लिया था हवेली का एक छुपा मन्ज़र,
इसी गुनाह पर आँखों से पुतलियाँ निकली

वो एक चराग़ जला, और वो रौशनी फैली,
वो राहज़नी के इरादे से आन्धिया निकली

खुदा का शुक्र के इस अह्दे बे लिबासी मे,
ये कम नहीं के दरख्तो मे पत्तिया निकली

वो बच सकी न कभी बुल्हवस परिन्दो से,
हिसारे आब से बाहर जो मछ्लिया निकली

यही है क़स्रे मोहब्बत कि दास्ताँ काज़िम,
गिरी फ़सील तो इंसा कि हड्डिया निकली ।।     --काज़िम जरवली