Thursday, October 27, 2011

ग़ुबार-ऐ-आइना

फ़ज़ाए शहर की नब्ज़े खिराम बैठ गयी,
फ़सीले शब पे दीये ले के शाम बैठ गयी

वो धूल जिस को हटाया था अपने चेहरे से,
वो आइनों पा पये इन्तेक़ाम बैठ गयी

गुज़रने वाला है किया रौशनी का शहजादा,
जो बाल खोल के रस्ते मे शाम बैठ गयी

मै किस नशेब मे तेरा लहू तलाश करु,
तमाम दश्त पा ख़ाके खयाम बैठ गयी

बहुत तवील सफ़र का था अज़्म ऐ काज़िम,
हयात चल के मगर चन्द गाम बैठ गयी ।।     --काज़िम जरवली


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