Thursday, October 27, 2011

ऊरूज-ए-आदमियत

अगर मैं आसमानों की खबर रखता नहीं होता,
ग़ुबार-ए-पाए-गेति मेरा सरमाया नहीं होता

ऊरूज-ए-आदमियत है मिज़ाजे ख़ाकसारी मे,
कभी मिटटी का दामन धूल से मैला नहीं होता

अगर हम चुप रहे तो चीख्ने चीखने लगती है ख़ामोशी,
किसी सूरत हमारे घर मे सन्नाटा नहीं होता

मै एक भटका हुआ अदना मुसाफ़िर, और वो सूरज है,
मेरे साये से उसके क़द का अंदाज़ा नहीं होता

हयाते-नौ अता होगी, हमें बे सर तो होने दो,
बहार आने से पहले शाख पर पत्ता नहीं होता

हमारी तशनगी सहराओ तक महदूद रह जाती
हमारे पाँव के नीचे अगर दरया नहीं होता

सफ़र की सातएंइन आती तो हैं घर तक मगर काज़िम,
कभी हम खुद नहीं होते, कभी रास्ता नहीं होता ।।          --काज़िम जरवली


महुए

कभी हमने भी गेहूं की बाली मे महुए पिरोये थे !!!

मेरे गाँव की यादें नशीली !
जूही,
चमेली !

वो खट्टे, वो मीठे मेरे दिन,
वो अमिया, वो बेरी !

कभी गाँव के कोल्हु पर ताज़े गुड के लिये रोये थे !!
कभी हमने भी........................... महुए पिरोये थे !!!

कभी भैंस की पीठ पर,
दूर तालाब पर !

धान के हरे खेतो के बीच खोये थे !!
कभी हमने भी.............महुए पिरोये थे !!!

कच्ची दहरी के पीछे,
खाई के नीचे !

ठंडी रातो मे हम भी पयाल पर सोये थे !!
कभी हमने भी............... महुए पिरोये थे !!!

एक दिन हम जो जागे,
गाँव से अपने भागे !

सारे सपने ना जाने हमने कहाँ डुबोये थे !!
कभी हमने भी गेहूं की बाली मे महुए पिरोये थे !!!   --काज़िम जरवली


ग़ुबार-ऐ-आइना

फ़ज़ाए शहर की नब्ज़े खिराम बैठ गयी,
फ़सीले शब पे दीये ले के शाम बैठ गयी

वो धूल जिस को हटाया था अपने चेहरे से,
वो आइनों पा पये इन्तेक़ाम बैठ गयी

गुज़रने वाला है किया रौशनी का शहजादा,
जो बाल खोल के रस्ते मे शाम बैठ गयी

मै किस नशेब मे तेरा लहू तलाश करु,
तमाम दश्त पा ख़ाके खयाम बैठ गयी

बहुत तवील सफ़र का था अज़्म ऐ काज़िम,
हयात चल के मगर चन्द गाम बैठ गयी ।।     --काज़िम जरवली


लिबास-ऐ-शजर

लहु मे गर्क़ अधूरी कहानिया निकली,
दहन से टूटी हुई सुर्ख चूड़िया निकली

मै जिस ज़मीन पा सदियो फिरा किया तनहा,
उसी ज़मीन से कितनी ही बस्तिया निकली

जहा मुहाल था पानी का एक क़तरा भी,
वहा से टूटी हुयी चन्द कश्तिया निकली

मसल दिया था सरे शाम एक जुग्नु को,
तमाम रात ख़यालों से बिजलिया निकली

चुरा लिया था हवेली का एक छुपा मन्ज़र,
इसी गुनाह पर आँखों से पुतलियाँ निकली

वो एक चराग़ जला, और वो रौशनी फैली,
वो राहज़नी के इरादे से आन्धिया निकली

खुदा का शुक्र के इस अह्दे बे लिबासी मे,
ये कम नहीं के दरख्तो मे पत्तिया निकली

वो बच सकी न कभी बुल्हवस परिन्दो से,
हिसारे आब से बाहर जो मछ्लिया निकली

यही है क़स्रे मोहब्बत कि दास्ताँ काज़िम,
गिरी फ़सील तो इंसा कि हड्डिया निकली ।।     --काज़िम जरवली


ग़र्दिश-ए-दुनिया

मुफलिसी मे भी यहाँ खुद को संभाले रखना,
जेब खाली हो मगर हाथो को डाले रखना  

रोज़ ये खाल हथेली से उतर जाती है,
इतना आसान नहीं मुह मे निवाले रखना

गाँव पूछेगा के शहर से किया लाये हो,
मेरे माबूद सलामत मेरे छाले रखना

ज़िन्दगी तूने अजब काम लिया है मुझ्से,
ज़र्द पत्तो को हवाओ मे संभाले रखना

जब भी सच बात ज़बां पर कभी लाना काज़िम
ज़ेहन मे अपने किताबो के हवाले रखना ।।    --काज़िम जरवली

वन्दे मातरम

बात सच्ची हो तो चाहे जिस ज़बा मे बोलिये,
फर्क मतलब पर नहीं पड़ता है ख़ालिक़ कि क़सम
"माँ के पैरो मे है जन्नत" क़ौल है मासूम का,
मै मुसल्ले पर भी कह सकता हुं वन्दे मातरम ।।    --काज़िम जरवली

संगे-जब्र

अपना दिल अब अपने दिल के अन्दर लगता है,
हम को मन्ज़र से अच्छा पस मन्ज़र लगता है

बिन ठहरे चलते रहते हैं हाथ, मगर फिर भी,
रात की रोटी तक आने मे दिन भर लगता है

ईंटो और गारो से जिनका रिश्ता कोई नहीं,
उनके नाम का दीवारों पर पत्थर लगता है

ज़ैसे कुछ होने वाला है थोड़ी देर के बाद,
शहर मे अब रातो को ऐसा अक्सर लगता है

उन बूढ़े बच्चो को, लोरी देकर कौन सुलाए,
रात को जिनका घर के बाहर, बिस्तर लगता है

बाते गर्म करो तुम लेकिन, ठन्डे लह्जे मे,
उनी कपड़ो मै रेशम का अस्तर लगता है

उसको अपने साये मे रक्खे, कैसे कोइ पेड़,
जिसको अपनी परछाई से भी डर लगता है

इन चांदी सोने वालो से काज़िम दूर रहो,
इनकी कब्रों पर भी महंगा पत्थर लगता है ।।   --काज़िम जरवली

नुकूश

बड़े हुनर से समेटे हैं दर-बदर के नुकूश ,
बजाये पाव के चेहरे पा हैं सफ़र के नुक़ूश

ये अह्द-ए-नौ के तक़ाज़े, ये कुछ थकी रस्मे,
नये मकान मे जैसे पुराने घर के नुक़ूश

हमारे फ़न कि कही भी नहीं है गुंजाईश,
वरक़ वरक़ है किसी साहिबे हुनर के नुक़ूश ।।  --काज़िम जरवली

सराब-ऐ-हयात

सराबो से नवाज़ा जा रहा हूँ,
आमीर-ए-दश्त बनता जा रहा हूँ

मैं खुशबु हु यह दुनिया जानती है,
मगर फिर भी छुपाया जा रहा हुं

ज़माना मुझ्को सम्झे या न सम्झे,
मै एक दिन हूँ, जो गुज़रा जा रहा हूँ

मेरे बाहर फ़सीले आहनी है,
मगर अन्दर से टुटा जा रहा हूँ

मेरे दरिया, हमेशा याद रखना,
तेरे साहिल से पियासा जा रहा हूँ

तुम अब थकती हुई नज़रे झुका लो,
बुलंदी से मै उतरा जा रहा हूँ ।।   --काज़िम जरवली

फ़िक्रे-रवां

दुनिया का सफ़र करता हुं मै खुद से निकल कर,
तन्हाई मै खुलते है नए दर मेरे अन्दर

एक नूर सा होता है मुनव्वर मेरे अन्दर,
खुलता है सहीफ़ा कोई अक्सर मेरे अन्दर

दरियाओं के पानी से मै मरऊब नहीं हुं,
पहले से है मौजूद समन्दर मेरे अन्दर

काज़िम मै हमेशा से उसी का हुं मुक़्क़लिद,
तबलीग़ कुना है जो पयम्बर मेरे अन्दर ।।   --काज़िम जरवली